Feb 5, 2016

जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध

-Rakesh Mishra-
लल्लन-लोल्लन और लड़कपन में तसलीमा का भाषा ज्ञान
आप लोग हमेशा सभापति क्यों कहते हैं| सभा की प्रेसीडेंट कोई महिला हो तो उसको क्या कहेंगे? तुम पैट्रिआर्क लोग सभापति को सभा-परसन क्यों नहीं कहते”| लोग मान सकते  हैं कि विशुद्ध नारीवादी चिंतन में दशकों से डूबते-उतराते तसलीमा नसरीन ने बड़ा भारी निष्कर्ष निकाला| तसलीमा नसरीन के सेलेब्रिटी स्टेटस और स्टारडम में लोगों को ये बात व्यंग्य लगती है या विद्रोह ये भी दूसरी कहानी है| हिंदी आन्दोलन के पुरोधा पुष्पेन्द्र सिंह एक लाइन में इस बहस को यूँ निपटाते हैं कि ऐसी फंसावट में उलझी हैं, तो तसलीमा नसरीन को थोडा भाषा-व्याकरण सीखने पर जोर देना चाहिए, खास करके हिंदी या संस्कृत का| भाषा संस्कृति की जननी है| भाषा से जुझेंगी तो उनके लिए  लल्लन-लोल्लन और लड़कपन में ही फर्क कर पाना मुश्किल पड़ेगा|


कण-कण ईश्वर क्षण-क्षण अवतार वाले इस देश की एक तासीर है, “कोस-कोस पर बदले पानी चार कोस पर बानी”| छोटे से इस देश में इतनी भाषाएँ सबकी माँ एक, ये है भारतीय भाषाओँ की विविधता भरी विरासत|

अब तसलीमा जी भोजपुरी संगीत में गवाँरु बाजारवाद या बम्बइया फिल्मों में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद खोजने लगेंगे तो हासिल क्या होगा? आजकल तो उसमे मसखरेबाजी की बहार छाई है| इसी मसखरेबाजी के बाई-प्रोडक्ट के रूप में निकला नए दौर के व्यंग्यकारों का जत्था जो सोशल मीडिया पर नेट प्रैक्टिस करके पनपा और पला-बढ़ा| एसईओ, एसएमओ के सहारे बाज़ार भी बन के तैयार है| मोदी बाबा की जीत ने सोशल मीडिया के भाव  बढ़ाये तो सोशल मीडिया में वायरलिस्म की बीमारी ने बदनामी के| नतीजा ऊल-जुलूल बयानबाजियों से चर्चा में बने रहने वाले नेताओं की पौ बारह हो गयी| टीआरपी के इस  दौर में बेहतरी की इच्छा न करें| महान व्यंग्यकार आलोक पुराणिक ने हमे सिखाया कि हमने क्या सीखा-समझा और क्या जिया ये सब बेमानी है| लेकिन भारत के दक्षिण पंथी कहते रहे हैं कि “भारत सदियों  तक  विश्व गुरु  रहा  है” लेकिन पत्रकारिता के मामले में तो लगता  है कि “गुरु गुड रह  गए  चेले  चीनी हो गए”| आज तो अकल लगा के भी  नक़ल  ही करना उनकी नीति है, अगर यही नियति भी लगने लगे और नीयत में भी शुमार हो जाये तो विडम्बना होगी|    

उल जुलूल पेलने वाले सारे सटायरिस्ट लालू को सर माथे लगायें तो चलेगा| लालू की राजनीति में यह जनसंवाद का तरीका  है जिससे लोगों को लालू को सुनना बोझिल न लगे| लेकिन बेसिर-पैर की लिखा-पढ़ी करके सब राहुल सांकृत्यायन बन जाएँ तो मुसीबत पक्की है| नतीजे में कहावतें  कह के सिखाने-समझाने वाले काका हाथरसी का बेरोजगार होना तय मानिए| कविता और साहित्य का काकावाद हिन्दुस्तानी तहजीब है या “सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का बच्चा” इसका तो पता नहीं| लेकिन इतिहास गवाह है कि चच्चा लोग चमचागिरी करते-करते पत्रकार जरुर बनते रहे हैं| कोचिंग मंडियों में कहावत है कि भांग खा के लिखने-पढने से लोग आईएएस बन जाते हैं| इसी मान्यता के साथ जो आईएएस नहीं बन पाए हों उनकी पत्रकारिता भी परवान चढ़ने लगे तो क्रिएटिविटी की हाइट्स ही नुमायाँ होगी| किताबों के बोझ के नीचे  दबे आईएएस प्रशिक्षुओं के साथ भी देश को सहानुभूति रखनी होती है और क्रन्तिकारी पत्रकारों का भी सम्मान लोग कर ही डालते हैं| खाली समय में यह एक बढ़िया काम भी है|  लेकिन चोला बदल कर सटायरिस्ट बने पत्रकारों से पब्लिक को नतीजे में सिफ़र ही हासिल होगा| सिफ़र यानि कोरा सटायर कोई नैतिकता या नसीहत की उम्मीद करना व्यर्थ ही जानिए| पत्रकारिता हो या कोई और रोजगार-व्यापार अमूमन तो उसको जीना होता है, वो भी जबान और जिम्मेदारियों के साथ| अगर चिंतन और जबानी जमा खर्च करके ही रोटी-बेटी की व्यवस्था बने तो फिर रोजगार व्यापार में चापलूसी और चालाकी ही कुल जमा पूंजी बनेगी| रही बात ऐसी पत्रकारिता से फर्क पड़ने की तो उम्मीद पे तो दुनिया कायम है| लेकिन कवि की कल्पना जुमलेबाजी होगी या नसीहत इसका पता भुगतने के बाद चले तो गरियाना भी एक धर्म ही कहा जायेगा|

इंसान चाहे कितनी तरक्की कर ले बात तो सारी मुहं से ही बोली जाएगी वो भी ज्ञान-विचार और भावनाओं के साथ| गाकर बोलिए या नाचकर वो कला साबित होगी इसके लिए भी कंचन-कीर्ति और कामिनी जरुर मिलेगी| तमीज से बोलेंगे तो सम्मान मिलेगा और बदतमीजी की सजा वक्ता और श्रोता की हैसियत पर निर्भर है| कबीर ने इसकी अहमियत में ही निष्कर्ष दिया कि “तोल मोल के बोल”|
शायद आप  कबीरपंथी होने में शर्म महसूस करें तो आप लोगों के राष्ट्रवाद के टेस्टीमोनियल के लिए पेश है पाणिनीय व्याकरण की महत्ता पर विद्वानों के विचार| संभव है कि इससे शायद प्रेरणा लेकर आप शार्ट कट और जुमलेबाजी से बच सकें |

पाणिनीय व्याकरण मानवीय मष्तिष्क की सबसे बड़ी रचनाओं में से एक है। (लेनिनग्राड के प्रोफेसर टी. शेरवात्सकी)
पाणिनीय व्याकरण की शैली अतिशय-प्रतिभापूर्ण है और इसके नियम अत्यन्त सतर्कता से बनाये गये हैं। (कोल ब्रुक)
संसार के व्याकरणों में पाणिनीय व्याकरण सर्वशिरोमणि है।.. यह मानवीय मष्तिष्क का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अविष्कार है। (सर डब्ल्यू. डब्ल्यू. हण्डर)
पाणिनीय व्याकरण उस मानव-मष्तिष्क की प्रतिभा का आश्चर्यतम नमूना है जिसे किसी दूसरे देश ने आज तक सामने नहीं रखा। (प्रो॰ मोनियर विलियम्स)

वैसे तो स्वर-वर्ण उच्चारण के लिए दुनिया को भारत की देन है शिक्षा और व्याकरण| यानि स्वर वर्ण उच्चारण का सलीका, बात कहने का सबसे सही तरीका| वेद पढने की पहली शर्त में शामिल है वेदांगों छः वेदांगों को जानना| शिक्षा पहला वेदांग है, शेष पांच हैं  कल्प, छंद, व्याकरण, निरुक्त और ज्योतिष|    विडम्बना ही है कि इसे पढने-समझने और अभ्यास करने की बजाये युवा-भारत शार्ट कट तलाश रहा है| शिक्षा-व्याकरण-स्वर-वर्ण उच्चारण तो विश्व गुरु भारत की मान्यता वालों के लिए तो राष्ट्रवाद का मीटर होना चाहिए| ये मुफ्त मिलने वाली चीज है| हथियारों की मंडी से बाय-बेग-बोर्रो करके जमा किये हथियारों का क्या भरोसा| राष्ट्रवाद के मीटर का शार्ट कट बनाने में हथियारों की मंडी के दलाल न साबित हो जाएँ| क्या ये व्यावहारिक नहीं कि ‘सक्षम और समर्थ’ ‘विश्व गुरु भारत’ बनाने के लिए ऋषिकुल परंपरा में ईजाद हुई समझ और सूत्रों को समझा और जिया जाए| ताकि किसी देश के आगे  हाथ न पसारना  पड़े|

इतिहास गवाह है कि खोखली बौद्धिकता भारत के लिए काल  बनी है| नतीजे में गरीबी भुखमरी से लेकर युद्धों की विभीषिका  के हालात नुमायाँ हुए हैं|
इसलिए रामधारी सिंह दिनकर की इन लाइनों में यह सन्देश प्रेषित करना एक निज कर्तव्य मानता हूँ...

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र,
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।  

Rakesh Mishra

9313401818, 9044134164
सत्यमेव जयते

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