Apr 6, 2016

शिक्षा और लाचार व्यवस्था : 'गुदड़ी के लाल' वाली कहावत अपना अर्थ खो चुकी है

विवेक दत्त मथुरिया
हमारा सिस्टम कितना लाचार और बेबस है इसकी तस्दीक निजी स्कूलों में इस वक्त देखने को मिल जाएगी। निजी स्कूलों की मनमानी 'परम स्वतंत्र, सिर पर न कोई' वाली कहावत चरितार्थ रही है। अभिभावक बच्चों के बेहतर भविष्य के नाम पर निजी स्कूलों की मनमानी की त्रासदी झेलने को मजबूर हैं। निजी स्कूलों की मनमानी पर अंकुश के सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट और सरकारी आदेश-निर्देशों की अवहेलना हो रही है। शिक्षा राज्य का कल्याणकारी विषय है, पर पूरी तरह शिक्षा माफियाओं के कब्जे में है। प्रवेश शुल्क, किताब और यूनिफार्म के नाम पर मोटी कमाई की जा रही है।  स्कूल संचालक प्रवेश फार्म में अभिभावक के पेशे से जुड़े कॉलम को देख कर एडमिशन को तय कर रहे हैं। वहीं दूसरी ओर शिक्षा के अधिकार से जुड़े आरटीई कानून को ठेंगे पर रखे हैं। गरीब बच्चों को इसका लाभ नहीं मिल पा रहा है।


बेतुकी बातों पर कोहराम मचाने वाले सियासी दल और सरोकारों की पैरोकारी करने वाला मीडिया भी शिक्षा के नाम पर हो रही लूट और शोषण के सवाल मौन साधे हुए हैं। बच्चों के एडमिशन को लेकर इस वक्त अभिभावक गहरे टेंशन में हैं। निजी स्कूलों की मनमानी पर अंकुश लगाने को लेकर केंद्र और राज्य सरकारों की ओर से कोई प्रभावी हस्तक्षेप की पहल नहीं दिख रही। दूसरी बड़ी समस्या यह भी है कि निजी स्कूलों की मनमानी के खिलाफ स्थानीय स्तर पर किस सरकारी एजेंसी या अधिकारी से शिकायत की जाए? ये सारे सवाल व्यवस्था के सामने यक्ष प्रश्न बने हुए हैं। सरकारी स्कूल गरीबों के शिक्षा केंद्र बन गए हैं। शिक्षा की यह विषमता सामाजिक और आर्थिक विषमता की खाई को बढ़ा रही है और संविधान की प्रस्तावना में दर्ज 'समानता' शब्द को बेजान बना दिया है। शिक्षा की असमानता की यह विस्तारित होती संस्कृति सरकारों के तरक्की के दावे और अच्छे दिन के वादे को खारिज कर रहे हैं।

'गुदड़ी के लाल' वाली कहावत अपना अर्थ खो चुकी है। वह दिन अब लद गए कि गरीब का बच्चा अपनी योग्यता के दम पर सपनों साकार कर सके। शिक्षा का बाजारीकरण समाज में अभिशाप बन चुका है। मोटी फीस वसूल करने वाले अंग्रेजीदा स्कूल बेहतर जिम्मेदार नागरिक तैयार करने  की बजाय बजार के लिए खर्चीले उपभोक्ता तैयार करने का काम कर रहे हैं। शिक्षा के बाजारीकरण ने शिक्षा की आत्मा को मार दिया है। जिसका प्रभाव किशोरवय बच्चों के स्वभाव में स्पष्ट देखने को मिल रहा है। मोटी फीस वसूलने वाले अंग्रेजीदा स्कूल बच्चों और अभिभावकों पर परफॉर्मेंस को लेकर दबाव बनाए रखते हैं। इस दबाव ने बच्चों से उनकी अबोधता और मौलिकता छीन ली है। यह समाजशास्त्रीय अपराध है, जिसके लिए अभिभावक भी दोषी हैं। आज अभिभावकों की दमित इच्छाओं का दोहन बच्चों के बेहतर भविष्य के सपने दिखाकर किया जा रह है। मां-बाप अपने बच्चों को 'असाधारण' देखना चाहते हैं। 'असाधारणता' एक साइक्लॉजीकल समस्या का रूप ले चुकी है, जो बच्चों और अभिभावकों में अवसाद परोस रही है। बच्चों को,समझने की बजाय सारा जोर बच्चों को समझाने पर है। बच्चों के नाम पर बाजार हमारे जज्बातों का आर्थिक दोहन करने में लगा है।  व्यवस्था इससे पैदा हो रही समस्याओं और मनोविकारों से मुंह चुरा रही है। सवाल है हम जो हासिल करना चाह रहे हैं, वह हासिल होता दिख नहीं रहा।

शिक्षा के बाजारीकरण पर सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटेकर का कहना अपनी जगह दुरुस्त है कि 'शिक्षा को बाजार के हवाले करने से उसकी आत्मा खत्म हो रही है,इसलिए देश में शिक्षा को लेकर बड़े आंदोलन की जरूरत है।' शिक्षा में दलाल राज और माफियाराज ने शिक्षा के बाजारीकरण से जुड़े जन आक्रोश के वाप्षीकरण का काम किया है। गरीब अभिभावकों को नहीं मालूम कि आरटीई का लाभ कैसे हासिल किया जाए, इसी का लाभ निजी स्कूल उठा रहे हैं। गरीब बच्चों के लाभ से जुड़ा शिक्षा का अधिकार कैसे लागू हो इसका जवाब व्यवस्था के पास नहीं है। शिक्षा के नाम पर हो रही लूट और मनमानी पर किसी तरह का अंकुश लगता दिखाई नहीं दे रहा हमारे सिस्टम की लाचारी का इससे जीवंत प्रमाण और क्या हो सकता है।

लेखक vivek dutt mathuriya मथुरा के तेजतर्रार पत्रकार हैं. उनसे संपर्क journalistvivekdutt74@gmail.com के जरिए किया जा सकता है.

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