Apr 11, 2016

कामरेड, बहुत पॉवरफुल है स्टेट, इंकलाब कैसे होगा?

बात 1990 के दशक की है। यूपी से एक कॉमरेड मुंबई पधारे थे। नरीमन प्वाइंट पर सागर की लहरें किनारों से टकराकर वापस लौट रही थीं। शुरुआती परिचय के आदान-प्रदान के बाद उस समय कविताई करने को मरे जा रहे हमारे साथी गीत चतुर्वेदी ने साहित्य से जुड़ी क्या बात की, उस तरफ मेरा ध्यान नहीं गया। मेरे मुँह से अकस्मात एक सवाल उछलाः कॉमरेड 1917 के मुकाबले आज स्टेट बहुत ही अधिक शक्तिशाली है, इंकलाब कैसे होगा। जवाब मिला हमारा साहित्य पढ़ो। कुछ अखबार और शायद एक त्रैमासिक पत्रिका वे होटल ताजमहल से बमुश्किल दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस (पीपीएच) पर दो गये थे।


उसे पढ़ने की कोशिश की तो रोमांचित हो गया क्योंकि उससे पहले मैंने इस स्तर की हिंदी कभी नहीं पढ़ी थी। धीरे-धीरे पाठ को भेदकर अंतर्वस्तु तक पहुँचने का हुनर आने लगा। इसके पहले मैं लेनिन की लिखी हुई चौपतिया किताबों को पढ़ चुका था। चौपतिया मतलब वे किताबें जिन्हें तोड़-मरोड़कर साजिशन छापा गया था। पर यहाँ समझने वाली बात यह है कि किताबें ही अगर सब कुछ समझा देतीं तो फिर क्या था, मसला खुद ब खुद हल हो जाता। माने इस बात की दरकार थी कि किताबों में लिखे गये हर्फों के मायने आमने-सामने बैठकर समझाए जाएं। तो साहब, हमने दूसरी मंजिल में प्रवेश किया। ज्यादा तो कुछ नहीं पर लेनिन और माओ की चुनिंदा रचनाओं को हमने अपने स्तर पर पढ़ा था, लेकिन इसका यह अर्थ कदापि न समझें कि हमने उन कामरेड के, जो मुंबई गये थे, साहित्य को पूरी संजीदगी से और आद्योपांत न पढ़ा हो।

मेरे ख्याल से अगर पर्याप्त मात्रा में ऐसे लोग ही न हों, जिनसे विमर्श करके कोई योजना बनायी जाए या उन्हें अमल में लाने वाले हाथ ही न हों तो उसे मंसूबाबंदी के अलावा और क्या कहा जा सकता है। यहाँ एक मार्के की बात यह भी है कि आप जो कह रहे हैं या कहना चाह रहे हैं जनता में उसकी स्वीकार्यता तो होनी चाहिए, वरना पाटते रहिये नारों-पोस्टरों से दीवारों को।
अब वापस लौटते हैं अपने मूल सवाल परः 1917 के मुकाबले आज स्टेट की ताकत अरबों गुना बढ़ चुकी है। कैसे होगी समाजी तब्दीली। नागरिकों की निजता पर डाका डाला जा रहा है, साँसों पर पहरा बैठाने की तैयारी चल रही है। सैटेलाइट के जरिये आपके एक-एक मूवमेंट पर नजर रखी जा सकती है। अब, आप कहेंगे कि जन-समुद्र में बिला जाएंगे। पर कैसे? इसके पहले कि बड़े पैमाने पर कोई आंदोलन खड़ा हो, कतारों का ही कोई सिरफिरा-बकलोल, अव्वल दर्जे का हरामी आदमी पब्लिक फोरम यानि न्यू मीडिया में जाकर राज्य के बरअक्स जो ढाँचा तैयार करने की कवायद की जा रही होती है, उसकी ऐसी-तैसी कर देता है। माने पुनः मूषको भव।

लेनिन ने संसद को किस नाम से संज्ञापित किया था यह आप लोग जानते ही होंगे और जो नहीं जानते उनसे माथा मारने का कोई अर्थ भी नहीं। मेंशिविकों के साथ बहस में लेनिन ने इस बात की सख्त मुखालफत की थी कि पार्टी का ढाँचा खुला हुआ नहीं होना चाहिए माने यह कि कोई भी आदमी चार आने की गुरुदक्षिणा देकर सदस्य नहीं बने, जैसा कि संघी करते हैं। यहाँ फिर वही मसला? कोई भीतर का आदमी बाहर आ जाता है और सब किये-कराये पर पानी फेर देता है। अब का करोगे भइया? दंडकारण्य में लाल पताका लहराते हुए दंड पेल रहे माओवादियों की तरह अपने ही कभी साथी-संघाती रह चुके लोगों को ऊपर से छह इंच छोटा करोगे? नहीं न!!! अगर ऐसा करते हो तो स्टेट के काम को आसान बना दोगे उसे दखल देने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। सनद, रहे लेनिन ने तो ही का ही थी, हमारे भगत सिंह ने भी आतंकवाद का रास्ता अपनाने का विरोध किया था।  यहाँ यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जिन जवानों को माओवादी मार गिराते हैं वे उन्हीं के तबके के माने गरीब किसानों के बेटे होते हैं, जो आजीविका के लिए पुलिस-फौज में भर्ती होते हैं।

जनता में बिला जाने का यहाँ एक दिलचस्प उदाहरण देना चाहूँगा---पता है अमेरिका खुफिया एजेंसिया ओसामा बिन लादेन को काफी लंबे समय तक क्यों नहीं तलाश कर पायी थीं, क्योंकि वह सैटेलाइट से पूरी तरह से दूर था और संदेशा पहुँचाने के लिए सिर्फ मानव कुरियर को ही काम में लाता था। पर मत भूलिए कि उसकी अपने लोगों में कितनी मकबूलियत थी। क्या यह मकबूलियत हमारे यहाँ के कम्युनिस्ट काफी हासिल कर पाएंगे? आदिवासियों के इलाके में सक्रिय लोग कम्युनिस्ट कम खुदाई खिदमतगार अधिक हैं। तो बंधु सवाल यह उठता है कि माओ के कहे अनुसार अपने देश की ठोस परिस्थियों के अनुसार दिशा तय की जाए, कार्यक्रम बनाये जाएं तो 1917 के मुकाबले गंगा-जमुना में कितना पानी बह गया है, इस पर नहीं दिया जाना चाहिए। अब समाजी तब्दीली लाने का तरीका क्या होगा? इसका जवाब शायद मुझे अपने जीवन-काल में न मिले। यार, अब आमीन तो मत कहलवाइये।

कामता प्रसाद
संपर्कः info@translationcascade.com

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