May 25, 2016

भैंस, चाय और चुनौती : लालू और मोदी जैसी 'सियासी फ़ितरतों' से सावधान रहने की है जरूरत

कमलेश पाण्डेय 
"लोकतंत्र को मूर्खों का शासन" बताने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। अमूमन गरीबी और तंगहाली के बीच जिस तरह से उन्होंने अपना और अपने देश का निर्माण किया, वह हर किसी के लिए प्रेरणादायी है। अब वो इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन लोकतांत्रिक मुल्कों के बुद्धिजीवियों के दिल को उनके उपरोक्त शाश्वत विचार आज भी कुरेदते रहते हैं कि कितने सही थे वो। कितने दूरदर्शी थे वो। उन्होंने जिस अमेरिका का निर्माण किया, आज उसका दूसरा कोई सानी नहीं। सचमुच में, आज यदि वो होते तो अवश्य कह सकते थे कि "लोकतंत्र 'अपराधियों/बाहुबलियों' का शासन है। लोकतंत्र 'पूंजीपतियों' का शासन है। लोकतंत्र 'शातिर मिजाज' के लोगों का शासन है।"


जी हाँ, यह सही है। सौ फीसदी सही है। भारतीय राजनीति इसका एक नायब उदाहरण है। बानगी स्वरुप यह कहा जा सकता है कि जिस तरह से 1990 के दशक में समाजवादी नेता लालू प्रसाद यादव ने 'भैंस चराने वाले/दूध दूहने वाले' के रूप आमलोगों के बीच खुद को प्रोजेक्ट किया और लोगों को सुनहरे सपने दिखाकर राजनीतिक तौर पर बेहद सफल पारी खेली। अपने प्रतिद्वंद्वियों को मात देकर वे न केवल बिहार के मुख्यमंत्री बने, बल्कि भ्रष्टाचार में फंसने के बावजूद अपनी पत्नी राबड़ी देवी को बिहार का मुख्यमंत्री बनवाने में कामयाब हो गए। बाद के दिनों में वो देश के रेलमंत्री तक बने। यही नहीं, आज उनका बेटा तेजस्वी यादव बेहद कम उम्र में ही बिहार का उपमुख्यमंत्री है और महागंठबंधन की सरकार को चला रहा है, क्योंकि उसके सारथी उसके पिता लालू प्रसाद हैं। श्री प्रसाद पिछड़ों के एक दबंग नेता हैं और मुसलमानों के बीच उनकी अच्छी साख है। लेकिन पिछड़ों और अल्पसंख्यकों समेत पूरे बिहार को उन्होंने क्या दिया, यह जगजाहिर है।

अब बात करते हैं राष्ट्रवादी नेता व हिन्दू ह्रदय सम्राट नरेंद्र मोदी की। 2010 के दशक में यानी कि 2014 में लोकसभा चुनाव के ठीक पहले श्री मोदी ने 'लालू प्रसाद की चिरपरिचित राजनीतिक शैली की नक़ल' करते हुए खुद को न केवल 'चाय बेचने वाले' के रूप में आम आवाम के बीच प्रस्तुत किया बल्कि एक मजबूत पिछड़ा नेता के रूप में भी अपने आप को प्रचारित किया/करवाया और अपेक्षाकृत सफल होकर उत्तरप्रदेश के वाराणसी से सांसद और देश के प्रधानमंत्री बने। स्वाभाविक है कि यदि वो ऐसा नहीं करते तो उत्तरप्रदेश और बिहार की 'राजनीतिक मरुभूमि' में कदापि सफल नहीं होते क्योंकि वो गुजरात के नेता हैं और उस भाजपा से ताल्लुक रखते हैं जो कि सवर्ण हितैसी और अल्पसंख्यक विरोधी समझी जाती है। लिहाजा विकासोन्मुख राजनीति की बारीकियों को समझते हुए जिस तरह से थोक भाव में मोदी जी सपने बेच रहे हैं, उसकी एक सीमा है और युवा पीढ़ी अब इस हकीकत से वाकिफ होती जा रही है। इसलिए संभव है कि बाजपेयी जी की तरह ही उन्हें भी दूसरी राजनीतिक पारी खेलने का मौका नहीं मिले!

फिर भी, सुलगता हुआ सवाल है कि 'भैंस की बीन बजाकर' बिहार में और 'चाय की चुस्की लगाकर' देश में जो सरकार बनी, वह कितनी कारगर साबित हुई और लक्षित वर्ग का इन सरकारों ने कितना भला किया। क्या किसानों-मजदूरों और रेहड़ी-पटरी पर सामान बेचने वाले लोगों की माली हालत सुधरी? सत्ता में आने के बाद लालू और मोदी ने जो किया अथवा कर रहे हैं, उससे गरीबों को कम और अमीरों को ज्यादा फायदा मिला। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि जब गरीबों के हित में ठोस कदम उठाये ही नहीं गए तो फिर उन्हें सपने क्यों दिखाए गए? लालू और मोदी के रहते पूंजीपतियों के इशारे पर जिस तरह से श्रम कानूनों में बदलाव किये गए, उसने तो 'गरीबी हटाओ' का नारा देने वाली इंदिरा जी के अरमानों पर तुषारापात ही कर दिया। हद तो यह कि इस लोकतांत्रिक पाप में काँग्रेसियों, भाजपाइयों, समाजवादियों, दलितवादियों और वामपंथियों ने सामान रूप से अपनी-अपनी वैचारिक आहुती दी है कथित विकास का राग अलापकर!

दरअसल, किसी भी सरकार का काम 'सुव्यवस्था' देना है, लेकिन यहाँ तो एक हद तक सरकारें हीं मतलब परस्त कानून बनाकर 'अराजक' माहौल का वाहक प्रतीत हो रही हैं जो कि दु:खद है। भारतीय प्रबुद्ध वर्ग के ऊपर यह एक 'लोकतांत्रिक तमाचा' है जिसे बर्दाश्त करने की सभी सीमायें लगभग समाप्त हो चुकी हैं।

बात सिर्फ इतनी ही नहीं है बल्कि इससे भी ज्यादा गम्भीर है। बात तो हमारे नेता गरीबी की करते हैं, लेकिन कानून अमीरों के पक्ष में बनाते हैं। कहने को तो इस देश की मालिक जनता है, लेकिन कर राजस्व के उपभोग का ज्यादातर अधिकार नौकरशाही और सत्ताधारी जमात के पास सुरक्षित है। भले ही किसान, मजदूर, कामगार और सैनिक अपने खून-पसीने बहाऐं, लेकिन जनता की गाढ़ी कमाई से अपने-अपने घर-दफ्तर से लेकर वाहनों तक में एसी लगवाने और नाना प्रकार के उपभोग का अधिकार तो सिर्फ सत्ताधारी लोगों को ही है। क्या भैंस चराने वाला और चाय बेचने वाला इन विषम सामाजिक, आर्थिक व प्रशासनिक परिस्थितियों से अनभिज्ञ है अथवा जानबूझ कर सत्ता के लोभ में 'धृतराष्ट्र' बना बैठा है?

आप सोच रहे होंगे कि लालू और मोदी की ये कैसी तुलना? प्रथम, 'भ्रष्टाचार पुरुष'; और, दूसरा 'विकास पुरुष'। एक 'अल्पसंख्यक समर्थक छवि वाला' तो दूसरा 'घोर अल्पसंख्यक विरोधी छवि वाला'। कोई बिहार का, तो कोई गुजरात का। दरअसल, पूर्वांचल और पश्चिमांचल के बीच चोली-दामन का रिश्ता है। सोचिये, महात्मा गांधी के लिए 'चम्पारण' का जो महत्व है, वही मोदी के लिए बनारस (वाराणसी) का है। बिहार में आडवाणी को 'गिरफ्तार' करके लालू चमके, तो गुजरात में गोधरा का 'बदला' चुका कर मोदी चमके। गुरु-शिष्य मतलब कि लालू-जयप्रकाश और मोदी-आडवाणी के बीच हुए मानसिक 'घात-प्रतिघात' के किस्से सुनने हों तो कुछ दिनों तक लुटियन ज़ोन के राजनैतिक गलियारों की धूल फांकिए! सबकुछ खुद ही समझ जाएंगे।

इतना सबकुछ बताने के पीछे का मेरा मकसद यही है कि दोनों ने अपने-अपने समर्थक वर्ग के साथ छल किया है चाहे जो भी संवैधानिक मजबूरी रही हो। इस बात के प्रबल आसार हैं कि 2019 में और उससे पहले विभिन्न राज्यों में अब जो भी सियासी मुकाबले होंगे, वो ऐसे ही राजनीतिक चरित्र के लोगों के बीच होंगे और जनता हर वक्त अपने-आपको ठगा-सा महसूस करेगी क्योंकि यह नई आर्थिक नीतियों-कुनीतियों का असर है जिसे भोगते रहने के लिए आम आवाम अभिशप्त है। संभव है ये मुकाबले कमोबेश 'धर्मनिरपेक्ष टीम लालू' और 'राष्ट्रवादी टीम मोदी' के बीच ही होंगे? यह बात दीगर है कि मोदी 'सामने' से होंगे और लालू 'पीछे' से। कारण कि दिल्ली से कोलकाता-तमिलनाडु तक मतलब कि केजरीवाल, अखिलेश, नीतीश, ममता, जयललिता और पटनायक परस्पर मिलकर भी मोदी-शाह का मुकाबला नहीं कर पाएंगे, लेकिन नीतीश-लालू अकेले ही उनसे टकराने की कुब्बत रखते हैं बशर्ते कि उपरोक्त नेता उन्हें अपना 'कमांडर' मान लें जो कि फिलवक्त संभव नहीं, बिहार को छोड़कर।

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