May 18, 2016

ऊं को लेकर विवाद निरर्थक!

अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस पर ऊं के उच्चारण की अनिवार्यता और
साम्प्रदायिक रंग देकर बेवजह का विवाद, योग के प्रति वैश्विक-आस्था को
चोट पहुचान के सिवाय कुछ भी नहीं है। जहां तक योग का सवाल है, तो
इस्लामिक इवादत की सम्पूर्ण प्रक्रिया ही योग के विविध आयाम हैं, सर्वथा
शरीर को निरोग रखने में परवर दिगार (ईश्वर) की नियामत (कृपा) के रूप में
स्वीकार किया जाता है। ‘योगश्चित्तवृत्तिः निरोधः’ एवं ‘योगः कर्मसु
कौशलम्’ यानी ‘‘चित्तवृत्ति पर नियंत्रण एवं कर्म की कुशलता के
सिद्धान्त’’ को भला कौन सा मजहब स्वीकार नहीं करता? समूचा प्राणी जगत
स्वाभाविक रूप से कर्म-कौशल एवं आधि-व्याधिग्रस्त होते ही चित्तवृत्ति को
रोक देता है, फिर योग को हिन्दुत्व की संकीर्णता में कैसे समेटा जा सकता
है? ‘योग’ पूर्णता पंथनिरपेक्ष प्राणी मात्र की जीवन-शैली है।

अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस पर ऊं के उच्चारण की अनिवार्यता को लेकर जो
निरर्थक विवाद खड़ा किया गया गया है, वह ‘‘सत्ता विरोधी राजनीति’ के
सिद्धान्त पर केन्द्रित है। प्रणव (ऊं) का उच्चारण प्राणवायु को शोधित
करते हुए ऊर्जात्मकता के आभामंडल को परिष्कृत करने की प्रक्रिया है, जो
हृस्व-दीर्घ से परे ‘प्लुत’ की घ्वनि के रूप में है। सामवेद में गायन में
भी प्लुत की अधिकता पर बल दिया गया है। व्याकरण में स्वर भेद
(हृस्व-दीर्घ-प्लुत) बताये गये हैं। हृस्व- अ इ उ ऋ यानी जिनके उच्चारण
में श्वांस को तत्काल रोकना होता है अर्थात् ब्रेक लगता है। दीर्घ- आ ई ऊ
ए ऐ ओ औ अनुस्वार जिनके उच्चारण में श्वांस को ऊंचा उठाकर कुछ देर में
रोका जाता है। प्लुत- सर्वथा हृस्व-दीर्घ से परे है जिसके उच्चारण में
लम्बी श्वांस खींच कर तब तक घ्वनि निकलती है, जब तक श्वांस स्वतः न रुक
जाये यानी बिना ब्रेक की गाड़ी जो पेट्रोल रूपी श्वांस समाप्त होने पर
स्वतः रुक जाती है जिसका प्रतीक (3) है यथा ‘प्रणव ऊं ओ3म’। ओ (अ$उ) को
प्लुत (3) यानी अकाट्य श्वांस से घ्वनि होना, श्वांस टूटते ही म की
हृस्वात्मक घ्वनि। वैयाकरणीय विद्वानों ने प्लुत के लिए कुक्कुट घ्वनि का
उदाहरण दिया है यानी मुर्गा एक योगाचार्य के रूप में बाग देते है
कुड़कू333कू यहां मध्यस्थ कू प्लुत (3) है जिसकी घ्वनि देर तक गुंजायमान
रहती है। अन्य तमाम प्राणी प्लुतात्मक ध्वनि के माध्यम से योग के प्लुत
ऊंकार को वैदिक मंत्रोच्चारण में वैज्ञानिक शोधात्मकता की प्रतीति
स्वीकारी गई है। ऊं के ही विकल्प स्वरूप योगात्मक इबादत का ‘‘नमाज’’ में
अल्लाहो333अकबर में अकाट्य श्वांस से प्लुतात्मक ध्वनि स्वयं को अल्लाह
से जुड़ने की अनुभूति है वही तो ऊंकार की प्लुतात्मक ध्वनि आत्मा-जीवात्मा
के योग (जोड़) की अनुभूति आधि व्याधि को दूर भगाते हुए निरोगी बनाने के
अष्टांग योग का मूलतत्व है। इसे आधार पर योग एवं ‘प्रणव ऊं ओ3म को
हिन्दुत्व की संकीर्णता में समेटना न केवल मानव जीवन शैली का अपमान है,
बल्कि जड़-चेतन जगत के घ्वनि विज्ञान एवं स्वाभाविकता को नकारना है।
- देवेश शास्त्री, इटावा 9456825210

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